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ले चलो उस गाँव, सजनी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
तुम नदी हो
और हम हैं नाव, सजनी
घाट पहुँचे
धार में बहकर तुम्हारे नेह की हम
जान पाये सँग तुम्हारे
आस्तिकता देह की हम
सींचतीं तुम
जिसे निशि-दिन
हम वही हैं ठाँव, सजनी
टापुओं पर तुम्हें देखा
तुम उन्हें छूकर हँसीं थीं
धुनें कितनी बाँसुरी की
साँस में आकर बसीं थीं
जड़ों में
तुम हो समाईं
हम हुए वट-छाँव, सजनी
काठ के हम
और भीतर से, सखी, हम
खोखले हैं
तिरे तुम सँग
और लहरों में तुम्हारी
हम ढले हैं
जहाँ सूरज
अस्त होता
ले चलो उस गाँव, सजनी