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वक़्त गुजर रहा है / विष्णुचन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
तुमने क्या ट्रेन की जंजीर खींची है!
घने जंगल में ट्रेन
तुम्हारा इंतजार कर रही है।
आ भी जाओ
वक़्त गुज़र रहा है
ऊपर की टहनी में
रात काजल की झालर बाँध रही है
आओ भी...!