भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विरहाकुल अति व्यथित-हृदय है / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विरहाकुल अति व्यथित-हृदय है, छाया है सब ओर विषाद।
एक परम सुख है-’प्रियकी है बनी निरन्तर प्यारी याद॥’
’श्याम आ गये’, इसी समय, यह सखिने दिया सुखद संवाद।
सुनते ही, उर-व्यथा मिट गयी, बना विषाद परम आह्लाद॥
उठी, दर्शनातुर विह्वल हो, भाग चली प्रियतमकी ओर।
कौन, कहाँ, क्योंभाग रही मैं, भूली होकर प्रेम-विभोर॥
मदमाती डगमगती दौड़ी, पहुँची तुरत कुजके द्वार।
देखा, खड़े मधुर मुसकाते वहाँ प्रेम-धन नन्द-कुमार॥
देख परस्पर मुख-शशि अनुपम अगणित विधु-निन्दक सुख-सार।
हु‌ए निमग्र प्रेम-सुख-रसनिधि दृगसे बही प्रेम-रस-धार॥
जगी तुरत अपनी अयोग्यता, प्रेम-हीनताकी अनुभूति।
दीखी उधर रूप-गुण-निधिकी अतुल पवित्र प्रेम-‌अभिभूति॥
उपजा मन संकोच, बढ़ी फिर प्रियता प्रियतमपर सविशेष।
कहाँ अतुल ये सर्वगुणाश्रय, कहाँ हीन मैं सद्‌गुण-लेश॥
कितने अमित प्रेममय प्रियतम, कितने सहज असीम उदार।
जो मिलने मुझ-सी मलिनासे आये स्वयं तुच्छता धार॥
इतनेमें प्रियतमने उसको स्नेह-भरे हाथोंसे खींच।
अति निषेध करते-ही-करते लिया उसे निज उरमें भींच॥
मिलनेपर निषेध शुचि होता, अमिलनमें मिलनेकी चाह।
पावन परम प्रेम-रस-निधिकी मिलती नहीं किसीको थाह॥
अपने दोष दीखते अगणित, उसका सद्‌गुण-सिन्धु अपार।
उदय नहीं हो पाता इससे, कहीं कभी गर्वाहंकार॥
भरता रहता प्रेम-सिन्धु नित पर न कभी भर पाता पूर्ण।
प्रेम वृद्धिकी सहज होड़ दिखलाती अपना प्रेम अपूर्ण॥