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{{KKRachna
| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जब प्यार तेरा मुझको मयस्सर न हुआ था
ग़म कहते हैं जिसको वो मुकद्दर न हुआ था
आँखों से तो अश्कों की हुआ करती थी बरसात
पहले तो कभी दामने-दिल तर न हुआ था
वीरान था जब तेरी मोहब्बत से मेरा दिल
आबाद था, बरबाद मेरा घर न हुआ था
भूलूंगा मैं किस तरहा भला पहली मुलाक़ात
तब आपका दिल फूल था पत्थर न हुआ था
अब नर्क है संसार, कभी स्वर्ग था लोगो
जब आदमी कोई भी सितमगर न हुआ था
सीने से लगाकर मुझे महका दिया तुमने
वरना मैं कभी इतना मुअत्तर न हुआ था
कहते हैं 'रक़ीब' अब है मुक़द्दर का सिकन्दर
इस तरहा ये ज़र्रा कभी अख्तर न हुआ था
</poem>
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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
| संग्रह =
}}
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<poem>
जब प्यार तेरा मुझको मयस्सर न हुआ था
ग़म कहते हैं जिसको वो मुकद्दर न हुआ था
आँखों से तो अश्कों की हुआ करती थी बरसात
पहले तो कभी दामने-दिल तर न हुआ था
वीरान था जब तेरी मोहब्बत से मेरा दिल
आबाद था, बरबाद मेरा घर न हुआ था
भूलूंगा मैं किस तरहा भला पहली मुलाक़ात
तब आपका दिल फूल था पत्थर न हुआ था
अब नर्क है संसार, कभी स्वर्ग था लोगो
जब आदमी कोई भी सितमगर न हुआ था
सीने से लगाकर मुझे महका दिया तुमने
वरना मैं कभी इतना मुअत्तर न हुआ था
कहते हैं 'रक़ीब' अब है मुक़द्दर का सिकन्दर
इस तरहा ये ज़र्रा कभी अख्तर न हुआ था
</poem>