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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की

याद आती है वो चंचल चितवन
और शोख़ अदाएं भोलापन
धक धक करता है मेरा मन
गहराई में तू है सांसों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......

जो दुःख भी है तुझसे दूर रहे
तू बन के परी और हूर रहे
जो मांग मे है सिन्दूर रहे
जलती रहे ज्योती नैनों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की......

जब प्रेम जगत पर छाऊंगा
मन को मैं तेरे भाऊँगा
चाहा है तुझे मैं पाऊँगा
है मेरी तपस्या बरसों की

छा जाए घटा जब ज़ुल्फ़ों की
ले ले के बलाएँ पलकों की
</poem>
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