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Kavita Kosh से
छूकर वहीं दुबारा
ऐसे देखा नहीं करो !
मन होता है पारा !
कौन बचाकर आँख सुबह की नींद उतार गया
तुम करके और इशारा
ऐसे देखा नहीं करो !
मन होता है पारा !
होना-जाना क्या है, जैसे कल था, वैसा कल
लिखकर तुम उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो !
मन होता है पारा !
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