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|रचनाकार=जिगर मुरादाबादी
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मर के भी कब तक निगाहे-शौक़ को रुस्वा करें
ज़िन्दगी तुझको कहाँ फेंक आएँ आख़िर क्या करें
ज़ख़्मे-दिल मुम्किन<ref> संभव</ref> नहीं तो चश्मे-दिल<ref> मन की आँख</ref> ही वा करें<ref>खोलें </ref>
वो हमें देखें न देखें हम उन्हें देखा करें
</poem>
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मर के भी कब तक निगाहे-शौक़ को रुस्वा करें
ज़िन्दगी तुझको कहाँ फेंक आएँ आख़िर क्या करें
ज़ख़्मे-दिल मुम्किन<ref> संभव</ref> नहीं तो चश्मे-दिल<ref> मन की आँख</ref> ही वा करें<ref>खोलें </ref>
वो हमें देखें न देखें हम उन्हें देखा करें
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