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तुम कहाँ-कहाँ विचरण करते रहते हो, तुम पहुंचे थे क्या वहीं जनक के पुर में?
गहरी सी दृष्टि देखता बोला दशमुख- “तुम रहीं छिपाए लेकिन मुझे विदित सब!"!
विस्मित विमूढ हो उठी रुआँसी रानी, कुछ बोल न पाई दृष्टि रही नत ही नत!
"मिथिलापुर के आयोजन में यश पाऊँ, कामना यही जागी थी मेरे मन में,
अपने भुज-बल पौरुष की धाक जमाकर, दुर्लभ कन्या को लाऊँ अन्तःपुर में!"!
वैदेही की अनुहार लगी ऐसी ही, जब मैंने तुम्हें प्रथम देखा था सम्मुख,
लक्षण सारे देखे थे अपनी आँखों, उन दिनों तुम्हारा रूप बहुत निखरा था,
फिर लौटीं तुम फीकी उदास, हत होकर, तब भी संशय मन में कुछ नहीं उठा था!"!
नयनों के आगे अंधकार सा आया, चकराया मस्तक, कंपित थे डगमग पग
मन्दोदरि का विवर्ण मुख देखा उसने, "व्रत की दुर्बलता? यह क्या हुआ अचानक"?
तुम हो अस्वस्थ? चिन्तित सा हो कर रावण,गिरती-सी रानी के समीप बढ आया,
अति शान्त मनस्थिति में निस्पृह हो शेष आयु बीते अकाम!
सब छोड़ ऊपरी ताम-झाम आराध्य शंभु औ' तू सहचरि,
हिमगिरि के वन हों, रम्य गुहा, गंगा का तट हो स्वर्गोपरि!
जो होगा होने दो, भोले की लीला, है कायर नहीं, समर्थ तुम्हारा स्वामी!
उस केश-पाश पर मुख धर लंकापति भी
अति शान्त भाव से बैठा रहा अजिर में!
 
 
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