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लोग अब भाषा में भी जूते पहनकर चलने लगे हैं
वे कलम की स्‍याही जांचने और काग़ज़ के कोरेपन को महसूस करने की बजाए
जूते चमकाते हैं मनोयोग से
और उन्‍हें पहन भाषा में उतर जाते हैं
वे अधिक जगह घेरने और अधिक आवाज़ करने लगते हैं
कुछ लोग अपने आकार से बड़े जूते पहनने लगते हैं उन्‍हें लद्धड़ घसीटते दिख जाते हैं
अधिक बड़ी छाप छोड़ जाने की निर्दयी और मूर्ख आकांक्षा से भरे
कि जूते पहनकर आना मना कर दिया जाए
मैंने देखा एक विकट प्रतिभावान अचानक कविता में स्‍थापित हो गया युवा कवि
कविता की भाषा में पतलून पहनना भूल गया था
पर जूते नहीं
वो चमक रहे थे शानदार उन्‍हें कविता में पोंछकर वह कविता से बाहर निकल गया
और इसका क्‍या करें
कि एक बहुत प्रिय अति-वरिष्‍ठ हमारे बिना फीते के चमरौंधे पहनते हैं
भाषा में झगड़ा कर लेते हैं –क्‍या रक्‍खा है बातों में ले लो जूता हाथों में की तर्ज़ पर
खोल लेते हैं उन्‍हें
उधर वे जूता लहराते हैं
दुहरी मार है यह भाषा बेचारी पर
कुछ कवियों के जूते दिल्‍ली के तीन बड़े प्रकाशकों की देहरी पर उतरे हुए पाए जाते हैं
प्रकाशक की देहरी भाषा का मनमर्जी गलियारा नहीं
एक बड़ी और पवित्र जगह है
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