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|रचनाकार=पुष्पिता
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
शब्दों से
पुकारती हूँ तुम्हें
तुम्हारे शब्द
सुनते हैं मेरी गुहार।
तुम्हारी हथेलियों से
शब्द बनकर उतरी हुई
हार्दिक संवेदनाएँ
अवतरित होती हैं
आहत वक्ष-भीतर
अकेलेपन के विरुद्ध।
बचपन में साध-साधकर
सुलेख लिखी हुई कापियों के काग़ज़ से
कभी नाव, कभी हवाई जहाज
बनानेवाली ऊँगलियाँ
लिखती हैं चिट्ठियाँ
हवाई-यात्रा करते हुए शब्द
विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को
छूते हुए लिखते हैं
संबंधों का इतिहास।
तुम्हारे शब्द
अंतरिक्ष के भीतर
गोताखोरी करते हुए
डूब जाते हैं मेरे भीतर।
अपने ही अंदर
आदमी के भीतर
होती है एक औरत
और
औरत के भीतर
होता है एक आदमी।
आदमी अपनी जिंदगी में
जीता है कई औरतें
और
औरत ज़िंदगी भर
जीती है अपने भीतर का आदमी।
औरत
अपने पाँव में चलती है
अपने भीतरी आदमी की चाल
बहुत चुपचाप।
आदमी अपने भीतर की औरत को
जीता है दूसरी औरतों में
और
औरत जीती है
अपने भीतर के आदमी को
अपने ही अंदर।
</poem>
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शब्दों से
पुकारती हूँ तुम्हें
तुम्हारे शब्द
सुनते हैं मेरी गुहार।
तुम्हारी हथेलियों से
शब्द बनकर उतरी हुई
हार्दिक संवेदनाएँ
अवतरित होती हैं
आहत वक्ष-भीतर
अकेलेपन के विरुद्ध।
बचपन में साध-साधकर
सुलेख लिखी हुई कापियों के काग़ज़ से
कभी नाव, कभी हवाई जहाज
बनानेवाली ऊँगलियाँ
लिखती हैं चिट्ठियाँ
हवाई-यात्रा करते हुए शब्द
विश्व के कई देशों की धरती और ध्वजा को
छूते हुए लिखते हैं
संबंधों का इतिहास।
तुम्हारे शब्द
अंतरिक्ष के भीतर
गोताखोरी करते हुए
डूब जाते हैं मेरे भीतर।
अपने ही अंदर
आदमी के भीतर
होती है एक औरत
और
औरत के भीतर
होता है एक आदमी।
आदमी अपनी जिंदगी में
जीता है कई औरतें
और
औरत ज़िंदगी भर
जीती है अपने भीतर का आदमी।
औरत
अपने पाँव में चलती है
अपने भीतरी आदमी की चाल
बहुत चुपचाप।
आदमी अपने भीतर की औरत को
जीता है दूसरी औरतों में
और
औरत जीती है
अपने भीतर के आदमी को
अपने ही अंदर।
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