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Kavita Kosh से
गिर रही हैं पत्तियाँ बलूत की
गर्मियाँ बीत चुकी हैं
चुम्बनों की प्रतीक्षा में होंठ येहैं
गर्मियाँ रीत चुकी हैं
उल्लुओं के कोटर में शोर है
होंठ चाहते हैं फिर चुम्बन
सूखे हुए औ’ फटे हुए हैं होंठ