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Kavita Kosh से
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वो आस्माँ मिज़ाज कहां आस्माँ से था
उसका वजूद भी तो इसक इसी ख़ाकदाँ1 से था
उसके हरेक ज़ुल्म को कहता या था अ़द्ल2 मैं
साया मिरे भी सर पे उसी सायबाँ से था
इक साहिरा3 ने मोम से पत्थर किया जिसे
वो क़िस्साक़िस्स-ए-लतीफ़ मिरी दास्ताँ से था
गरदान4 कर मैं आया हूँ मीज़ाने-फ़ायलात5