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{{KKRachna
|रचनाकार=रामनरेश पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>बंधु रे!
नाग सोख गया
धरती का रस,
बीज, मिहनत, कमाई
मेरी छाती दरक गयी
बंधु रे!
संज्ञा बदल गयी
विशेषण बदल गए
कर्म और अधिकरण, बदल गए
मेरी बाजी पलट गयी
बंधु रे!
जहर अब भी घोला जा रहा है
भविष्य के शिशु को एक हाथ
अब भी दबोचे जा रहा है
बंधु रे!
बंधु रे!!
बंधु रे!!!
</poem>
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<poem>बंधु रे!
नाग सोख गया
धरती का रस,
बीज, मिहनत, कमाई
मेरी छाती दरक गयी
बंधु रे!
संज्ञा बदल गयी
विशेषण बदल गए
कर्म और अधिकरण, बदल गए
मेरी बाजी पलट गयी
बंधु रे!
जहर अब भी घोला जा रहा है
भविष्य के शिशु को एक हाथ
अब भी दबोचे जा रहा है
बंधु रे!
बंधु रे!!
बंधु रे!!!
</poem>