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होती बात निराली / जगदीश व्योम

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<poem>मेरा भी तो मन करता है
मैं भी पढ़ने जाऊँ।
अच्छे कपड़े पहन, पीठ पर
बस्ता भी लटकाऊँ।
क्यों अम्माँ औरों के घर
चौका-बरतन करती है?
झाडू़ देती, कपड़े धोती
पानी भी भरती है।

अम्माँ कहती रोज, बीनकर
कूड़ा-कचरा लाओ।
लेकिन मेरा मन कहता है-
‘अम्माँ, मुझे पढ़ाओ।’

कल्लन कल बोला,
‘बच्चू मत देखो ऐसे सपने,
दूर बहुत है चाँद
हाथ हैं छोटे-छोटे अपने।’

लेकिन मैंने सुना हमारे लिए
बहुत कुछ आता,
हमें नहीं मिलता
रस्ते में कोई चट कर जाता!

पिंकी कहती है बच्चों की
बहुत किताबें छपतीं,
सजी-धजी दूकानों में
शीशे के भीतर रहतीं।

मिल पातीं यदि मुझे किताबें
सुंदर चित्रों वाली,
फिर तो अपनी भी यों ही
होती कुछ बात निराली!
</poem>
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