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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय 'प्रसून'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>माचिस की है तीली धूप,
सरसों-सी है पीली धूप।
गरम दूध-सी उबल रही है,
चूल्हे चढ़ी पतीली धूप।
अभी शाम आई थी, डटकर,
उसने सारी पी ली धूप।
सर्दी में क्यों हो जाती है,
पता नहीं, नखरीली धूप।
गरमी के तपते मौसम में,
होती बड़ी हठीली धूप।
</poem>
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<poem>माचिस की है तीली धूप,
सरसों-सी है पीली धूप।
गरम दूध-सी उबल रही है,
चूल्हे चढ़ी पतीली धूप।
अभी शाम आई थी, डटकर,
उसने सारी पी ली धूप।
सर्दी में क्यों हो जाती है,
पता नहीं, नखरीली धूप।
गरमी के तपते मौसम में,
होती बड़ी हठीली धूप।
</poem>