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धूप / दामोदर अग्रवाल

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<poem>खिड़की ज्यों ही खुली कि आकर
अंदर झाँकी धूप!
आकर पसर गई सोफे पर
बाँकी-बाँकी धूप!
बैठ मजे़ से लगी पलटने
रंग-बिरंगे पन्ने,
पलट चुकी तो बोली, ‘आओ
चलो पकाएँ गन्ने!’
और पकाने लगी ईख को
फाँकी फाँकी धूप!

फिर वह रुककर एक मेड़ पर
उँगली पकड़ मटर की,
बातें करने लगी इस तरह
चने और अरहर की!
दाने-दाने पर हो जैसे
टाँकी टाँकी धूप!

बैठ गई क्यारी में ऐसे
बाँह पकड़ सरसों की,
बिछुड़ी हुई मिली हों जैसे
दो सखियाँ बरसों की!
घूम रही यों क्यारी क्यारी
डाँकी-डाँकी धूप!
</poem>
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