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{{KKRachna
|रचनाकार=शैलजा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>हम मानते हैं
तुम मिले हों एक बंजर
धरती पर घने छांव से
कुछ पल तुम्हारे पास
रुकी तो लगा अंकुर पनपता है
पत्थरों पर भी
होती है उनमें भी जीने की चाह
स्पर्श की बूंदें
रोपती हैं बीज उनमें
और फूटती है जि़दगी
पत्थरों के ओर-छोर से।</poem>
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|रचनाकार=शैलजा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>हम मानते हैं
तुम मिले हों एक बंजर
धरती पर घने छांव से
कुछ पल तुम्हारे पास
रुकी तो लगा अंकुर पनपता है
पत्थरों पर भी
होती है उनमें भी जीने की चाह
स्पर्श की बूंदें
रोपती हैं बीज उनमें
और फूटती है जि़दगी
पत्थरों के ओर-छोर से।</poem>