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<b>दृश्य - सात</b>

<b>[ बाहुक का कक्ष - बाहुक रूपी नल अत्यंत विचलित-उद्वेलित दिखाई देते हैं| वे आत्मालाप में डूबे हैं ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) : यह कैसा है प्रपंच, दमयन्ती !
कैसा संदेश यह -
आज सभागार में हुआ क्रूर तड़ितपात -
आये भूदेव बन्धु ...
मैंने पहचाना था ...
आतुर था, उत्सुक था सुनने को |
और तभी ...
करका से कौंधे थे शब्द वे -
'महाराज कोसलपति !
महाराज नल का कुछ पता नहीं
कहाँ गये
और फिर प्रतीक्षा भी कब तक हो |
वैदर्भी वरण करेंगी फिर से पति का
सादर आमंत्रित हैं आप भी स्वयंबर में -
होगा वह वरण-पर्व कल ही अपराह्न में'

लावा-सा ढाल गये शब्द वे
साँसों में, प्राणों में
और मैं ...
ठहर नहीं पाया था आगे कुछ सुनने को|
हाय ! यह अनर्थ भला कैसे सह पाऊँगा...
क्या करूँ ?
अब केवल मृत्यु ही मुक्ति मुझे दे सकती
दारुण इस ताप से ...

मेरा अधिकार भी
अब तुम पर क्या रहा, दमयन्ती !
त्यागा था मैंने ही तुमको -
वही अनाचार मुझे आज फला ...
किन्तु ... यह मन में
आशा का होता संचार क्यों |
ऊपर से बुद्धि यही कहती है
समाचार सत्य है स्वयंबर का
पर भीतर जो मन मेरा
क्यों है स्वीकार नहीं कर पाता
निर्मम इस तथ्य को ?
दमयन्ती तो नितांत मेरी है
क्यों कहता अंतर्मन बार-बार ?
अरे दुष्ट निर्मम मन !
अब भी तू चैन नहीं लेने है देता क्यों ?
अब तो है मरणान्तक पीड़ा ही संगिनी ...
पर मन क्यों कहता है ... नहीं ... नहीं ...
यह कैसी मर्मान्तक दुविधा है !

<b>[ नेपथ्य में 'बाहुक-बाहुक' पुकारने की आवाज़ सुनाई देती है| प्रवेश करते-करते वार्ष्णेय उत्तेजित स्वर में कहता है ]</b>

<b>वार्ष्णेय -</b> : बाहुक ! मित्र !
महाराज का है यह आतुर आदेश, बन्धु !
रथ साधो बस तुरंत ...
और चलो कुण्डिनपुर ...

है कठिन परीक्षा यह -
कल है अपराह्न में स्वयंवर जो क्रूरतम
उस विदर्भनगरी में
उसमें हम जाकर पछतायेंगे ...
पर कर भी हम क्या सकते ...
सेवक हैं ...
वे मेरी स्वामिनी
किन्तु कहूँ क्या उनको ?

निषधराज ! सखा-स्वामि !
कहाँ छिपे बैठे हो
अब तो आ जाओ तुम
आओ, शीघ्र आओ, बन्धु !
यह अनर्थ होने से रोक लो ...

हाँ, केवल एक आस बँधती है
शायद उस स्वयंवर में
महाराज नल भी आ जाएँ
संभवतः देवी दमयन्ती के मन में भी
ऐसी ही आशा हो ...
क्या कहूँ ?

महाराज ने है कहलाया यह -
बाहुक से कहो
है परीक्षा यह उसके सारथ्य की |
कैसे भी हमें पहुँच जाना है कुण्डिनपुर
कल के मध्याह्न तक |

<b>[ कहते हुए चला जाता है| नल का मन विचलित स्वयं से फिर वर्तालाप करता है ]</b>

<b>नल -</b> ( स्वगत ) : वार्ष्णेय !
तुमने अनजाने में
कैसा उपकार किया है मुझ पर ...
हाँ-हाँ, यह संभव है ...
दमयन्ती ने हो यह रचा स्वाँग
जिससे कि मैं अवश्य ही पहुँचूँ...
उसे पता मेरे रथ-संचालन कौशल का |

मन मेरा प्रश्नों में उलझा है -
उत्तर दमयन्ती ही देगी अब |

<b>[कक्ष से बाहर चले जाते हैं ]</b>
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