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और यथार्थ भी / कुमार मुकुल

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<poem>और यथार्थ भी
एक दिन
दुररूस्वप्न हो जाता है

आपके कांधे से लग कर
चलती खुशी
कैद हो जाती है
आइने में अपने ही

खुद पर रीझती और खीझती
उसकी आवाज
अब दूर से आती सुनाई पडती है
दुविधा की कंटीली बाड
कसती जाती है घेरा

और जीने का मर्ज
मरता जाता है
मरता जाता है।
</poem>
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