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ओ प्रेम / सिया चौधरी

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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
थूं मत सोचजै रामूड़ा
कै ओ प्रेम
लूवां बाजती
दोपारी में मिलै
जकी छिंयां है...।

अरे बावळा
ओ तो
इस्यो तपतो तावड़ो है
कै पग मेलतां
फाला उपड़ जावै...।

आ भी मत सोची
कै ओ प्रेम
दिनूगै आळो
दई-छाछ रो
कळेवो है जिणनै
थूं गटागट गिट जावै।

ओ तो बो जैर है
जकै नै थूं
नीं गिट सकै
अर नीं सोरै सांस
थूकण में ई आवै...।

थूं आ तो नीं सोचै
ऐ रूपलै प्रेम रा
मारग सुगम-सोरा है
अरे गेला, सुजाण
आं में तो बै कांटा है
जिण में अळूझ‘र मन रा
किरचा-किरचा खिंड जावै...।

</poem>
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