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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=आईना-दर-आईना / डी. एम. मिश्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
तुम इतने खूसूरत हो कि बरबस आँख टिक जाये।
बहुत लिक्खे मगर कोई ग़ज़ल तुम-सी न लिख पाये।
अजब-सी हैं खुली जुल्फें, गजब-सा है खिला चेहरा,
उजाले और भी दिलकश अँधेरे में नज़र आयें।
ये आँखों की पुतलियाँ और वो होठों की पंखुड़ियाँ,
नज़र भरकर इन्हें बस देख लो तो आग लग जाये।
फलों पे हो कड़ा पहरा, लगे फूलों पे पाबन्दी,
मगर सबके लिए होते दरख़्तो के हसीं साये।
किसी प्यासे से ये पूछो कि कितनी चोट लगती है,
बिना बरसे कोई बादल अगर यूँ ही निकल जाये।
</poem>
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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=आईना-दर-आईना / डी. एम. मिश्र
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तुम इतने खूसूरत हो कि बरबस आँख टिक जाये।
बहुत लिक्खे मगर कोई ग़ज़ल तुम-सी न लिख पाये।
अजब-सी हैं खुली जुल्फें, गजब-सा है खिला चेहरा,
उजाले और भी दिलकश अँधेरे में नज़र आयें।
ये आँखों की पुतलियाँ और वो होठों की पंखुड़ियाँ,
नज़र भरकर इन्हें बस देख लो तो आग लग जाये।
फलों पे हो कड़ा पहरा, लगे फूलों पे पाबन्दी,
मगर सबके लिए होते दरख़्तो के हसीं साये।
किसी प्यासे से ये पूछो कि कितनी चोट लगती है,
बिना बरसे कोई बादल अगर यूँ ही निकल जाये।
</poem>