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04:07, 23 दिसम्बर 2017
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हर घड़ी क्या वही बताना,उफ़है इधर ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल उधर ज़माना, उफ़बनाती होफिर गिरा कर के फिर उठाती हो
वह गली है अजीब ही सी गलीउस गली सच में कभी न जानाहँसती हो, उफ़यार! सच बोलोमुझको लगता है कुछ छुपाती हो
उम्र भर बस यही हुआ हर रोज़मुझ से जब मिलने आना होता है'कुण्डियां' खोलना-चढ़ानाघर के लोगों को, उफ़क्या पढ़ाती हो?
बस यही हो रहाहै सच को झूठतुम पे पानी का ख़्वाब खुलता हैझूठ ''तुम को अब लगता है तुम नहाती हो'ख़ुदा' बताना, उफ़
कुछ हुआ क्या जुनून से हासिलमैं ही बस ख़ुद को बरगलाता हूँ?मिल गया आपको ख़ज़ाना! उफ़..तुम भी तो ख़ुद को बरगलाती हो
बात की बात कुछ नहीं फिर भीबे वजह यों 'उस सड़क पर ही तिलमिलाना, उफ़तो है दिल मेराजिस से तुम रोज़ आती-जाती हो'
आप का ज़ख़्म दे के जाना कुछ भी गिरता नहीं है फिरदम ब दम जाके लौट आनाभी, उफ़येरोज़ झुक-झुक के क्या उठाती हो!
हर किसी पे लगाए रखना आंख'कल को पछता के फिर न रो देना हर कहीं पे ही दिल झुकाना, उफ़अब जो उल्फ़त के दिन गँवाती हो'
बात करने का मन न किस को खाती हो तो 'दीप‘बादे-दीपक'हांयकबयक काम का बहाना, उफ़किस की आंखों में अब लजाती हो!
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