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{{KKRachna
|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मामले को दबा के रहना था
जी हमें लात खा के रहना था
और कालिख भरी कुठरिया में
दाग़ से बच-बचा के रहना था
मुश्किलों को हँसाये रखने को
ज़िन्दगी को रुला के रहना था
पैर हाथों में ले के चलना और
हाथ ऊपर उठा के रहना था
ख़ैर छोड़ो जु़बां के हालो-हश्र
नाक गोया कटा के रहना था
हाए फँसना भी था उसी में जो
एक कांटा फँसा के रहना था
लाश अपनी उठा के कांधे पर
आग मुँह में लगा के रहना था
</poem>
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मामले को दबा के रहना था
जी हमें लात खा के रहना था
और कालिख भरी कुठरिया में
दाग़ से बच-बचा के रहना था
मुश्किलों को हँसाये रखने को
ज़िन्दगी को रुला के रहना था
पैर हाथों में ले के चलना और
हाथ ऊपर उठा के रहना था
ख़ैर छोड़ो जु़बां के हालो-हश्र
नाक गोया कटा के रहना था
हाए फँसना भी था उसी में जो
एक कांटा फँसा के रहना था
लाश अपनी उठा के कांधे पर
आग मुँह में लगा के रहना था
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