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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
अच्छी बातें लग जाती हैं यार बुरी
यानि-यानि हाँ-हाँ जी सरकार बुरी
इसे सँभाले रखना इतना आसां है?
जब-तब नीचे आती है 'दस्तार' बुरी
माना उलझन ख़ून जलाती है बेशक़
लेकिन यों भी नहीं मियाँ बेकार-बुरी
लम्हे-भर में बरसों का ख़ूँ होता है
कान बुरा है या कि फिर दीवार बुरी?
कश्ती-लंगर-दरिया-मौजें और भँवर
सब अच्छे हैं 'दीप' मगर पतवार बुरी
23.
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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
उस गली से जब गुज़रते हम चले जाते हैं दोस्त
पूछ मत कितना सिसकते और पछताते हैं दोस्त!
ज़िन्दगी को खा गयी है मस्लेहत बे-शक़, मगर
तुम यकीं मानो कि इससे ख़ूब-तर खाते हैं दोस्त
वक़्ते-शब घर से बुला कर के थमा कर के 'शराब'
सुब्ह को दुनिया के हो कर तंज़-फ़रमाते हैं दोस्त
सब नवाज़िश है तिरी ही के ख़लिश है दम-ब-दम
पाँव पड़ते हैं चला जा, ‘अब कसम खाते हैं दोस्त’
अब ख़ुशी मिलती नहीं है सिर्फ़ डर लगता है 'दीप'
जब अचानक आ के साँकल, पीटते जाते हैं दोस्त
</poem>
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अच्छी बातें लग जाती हैं यार बुरी
यानि-यानि हाँ-हाँ जी सरकार बुरी
इसे सँभाले रखना इतना आसां है?
जब-तब नीचे आती है 'दस्तार' बुरी
माना उलझन ख़ून जलाती है बेशक़
लेकिन यों भी नहीं मियाँ बेकार-बुरी
लम्हे-भर में बरसों का ख़ूँ होता है
कान बुरा है या कि फिर दीवार बुरी?
कश्ती-लंगर-दरिया-मौजें और भँवर
सब अच्छे हैं 'दीप' मगर पतवार बुरी
23.
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|रचनाकार=दीपक शर्मा 'दीप'
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|संग्रह=
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<poem>
उस गली से जब गुज़रते हम चले जाते हैं दोस्त
पूछ मत कितना सिसकते और पछताते हैं दोस्त!
ज़िन्दगी को खा गयी है मस्लेहत बे-शक़, मगर
तुम यकीं मानो कि इससे ख़ूब-तर खाते हैं दोस्त
वक़्ते-शब घर से बुला कर के थमा कर के 'शराब'
सुब्ह को दुनिया के हो कर तंज़-फ़रमाते हैं दोस्त
सब नवाज़िश है तिरी ही के ख़लिश है दम-ब-दम
पाँव पड़ते हैं चला जा, ‘अब कसम खाते हैं दोस्त’
अब ख़ुशी मिलती नहीं है सिर्फ़ डर लगता है 'दीप'
जब अचानक आ के साँकल, पीटते जाते हैं दोस्त
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