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घोडा काफी देरी से जबमुर्गा बोला-’जल्दी उठकर पहुँच अपने दफ्तरअगर न दूँ मैं बाँग, ‘रोज लेट आते हो क्यों तुम’-घुड़का बंदर अफसर। घोडा बोला-‘नहींन सवेरा, नहीं सर!सूरज दादा ऐसा कभी न होता;पाएँ जाग’। मैं न लेटता, कभी न लेटासूरज दादा मुस्काएँ, सुन-खड़े‘कुकड़ूँ-खड़े ही सोता’। कूँ’ की बात;छिटकी वह मुस्कान धरा पर, स्वर्णिम हुआ प्रभात’। [बालकनंदन, जुलाई 1977जून 1997]
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