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Kavita Kosh से
वह मैं ही रहा होऊंगा
अलाव में जलते रोएं की मानिंद
कि हड्डियों पर अपनी पकड़ ढीली करता मांस का लोथड़ा
हवा में उलीच रहा है एक अजीब सी चिरायँध
शव को कंधे पर ढ़ो ...गति तक पहुंचा
झुंड में खड़ा मैं
नेपथ्य और स्वप्न के मध्य खड़े मौन को सुनता तो हूँ
कंकड़ की चुभन को महसूस कर सकता हूं
आकाश से झरते तारों की सैकड़ो स्याह रातों को
काटा है मैंने ......जागकर
उनींदा आंखों में रोशन थे
झल्लाता तो था
किंतु बरसों तक समझ न सका
शबेहिज्र में वो दुर्गंध भी बड़ी भारी होती है
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