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|संग्रह=आंख ई समझै / लक्ष्मीनारायण रंगा
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<poem>
हर नारी में
बसी है सै देवियां
जै पैछाणां तो

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घर घर में
मिलै है उग्रसेन
पूतां रै पाण

{{KKBR}}
लुगाई तो है
सावण री बादळी
झुरै‘र झुरै
</poem>
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