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Kavita Kosh से
घोंप देती है खँजर
परिचय के सीने में
रो पड़ती है पहाड़ी शृंखला शृँखला
सहम जाता है चिनार
मेरे भीतर जम जाती है
ढेर सारी बर्फ़ एक साथ ।
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