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नदियाँ जलधि की ओर बहकर लीं सागर में तथा,<br>
वे नाम रूप विहीन होकर जलधि मय होती यथा।<br>
त्यों ब्रह्म की सोलह कलाओं की परम गति पुरूष हैं,<br>
वह नाम रूप विहीन हो अब मात्र केवल पुरूष है॥ [ ५ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
रथ चक्र नाभि केन्द्र पर , ज्यों अरे स्थित हैं यथा,<br>
त्यों सब कलाएं सर्वथा स्थित प्रभो में न अन्यथा।<br>
ज्ञातव्य उस पर ब्रह्म का , यदि ज्ञान तुमको हो सके,<br>
नहीं मृत्यु की दारुण व्यथा से व्यथित कोई हो सके॥ [ ६ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
अथ तब सुकेशा आदि छह ऋषियों को ऋषि पिप्लाद से,<br>
हुआ ज्ञात ब्रह्म का ज्ञान इतना, उनके ही संवाद से।<br>
सत ज्ञान ब्रह्म का जानता था जितना भी वह कथित है,<br>
इससे परे परब्रह्म का नहीं ज्ञान हमको विदित है॥ [ ७ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
मुनिगण सुकेशा आदि ऋषियों ने ऋषि पिप्लाद से,<br>
पुनि पुनि नमन , व् कृतज्ञ भाव को, व्यक्त कर आह्लाद से।<br>
अथ प्रणत अतिशय नम्र होकर यह कहा कि आप ही,<br>
मम गुरु पिता हे ज्ञान प्रेरक, परम ऋषि वर आप ही॥ [ ८ ]<br><br>
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