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षष्ठ प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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नदियाँ जलधि की ओर बहकर लीं सागर में तथा,
वे नाम रूप विहीन होकर जलधि मय होती यथा।
त्यों ब्रह्म की सोलह कलाओं की परम गति पुरूष हैं,
वह नाम रूप विहीन हो अब मात्र केवल पुरूष है॥ [ ५ ]

रथ चक्र नाभि केन्द्र पर, ज्यों अरे स्थित हैं यथा,
त्यों सब कलाएं सर्वथा स्थित प्रभो में न अन्यथा।
ज्ञातव्य उस पर ब्रह्म का, यदि ज्ञान तुमको हो सके,
नहीं मृत्यु की दारुण व्यथा से व्यथित कोई हो सके॥ [ ६ ]

अथ तब सुकेशा आदि छह ऋषियों को ऋषि पिप्लाद से,
हुआ ज्ञात ब्रह्म का ज्ञान इतना, उनके ही संवाद से।
सत ज्ञान ब्रह्म का जानता था जितना भी वह कथित है,
इससे परे परब्रह्म का नहीं ज्ञान हमको विदित है॥ [ ७ ]

मुनिगण सुकेशा आदि ऋषियों ने ऋषि पिप्लाद से,
पुनि पुनि नमन, व् कृतज्ञ भाव को, व्यक्त कर आह्लाद से।
अथ प्रणत अतिशय नम्र होकर यह कहा कि आप ही,
मम गुरु पिता हे ज्ञान प्रेरक, परम ऋषि वर आप ही॥ [ ८ ]