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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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इश्क़ करना था, इश्क़ कर बैठे
हमने आफ़त बुलाई घर बैठे
इक ज़रा हंस के बात क्या कर ली
आप लाईन क्रास कर बैठे
जो ग़लत है उसी को उठना है
हम हैं अपने मुक़ाम पर बैठे
सब, नई रोशनी के चक्कर में
तीरगी को क़बूल कर बैठे
चलिए ख़ुद से ही बात करते हैं
कौन फ़ुरसत में रात भर बैठे
जब नहीं बेचने थे अश्क तुम्हें
क्यों यहां ले के चश्मे तर बैठे
</poem>
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इश्क़ करना था, इश्क़ कर बैठे
हमने आफ़त बुलाई घर बैठे
इक ज़रा हंस के बात क्या कर ली
आप लाईन क्रास कर बैठे
जो ग़लत है उसी को उठना है
हम हैं अपने मुक़ाम पर बैठे
सब, नई रोशनी के चक्कर में
तीरगी को क़बूल कर बैठे
चलिए ख़ुद से ही बात करते हैं
कौन फ़ुरसत में रात भर बैठे
जब नहीं बेचने थे अश्क तुम्हें
क्यों यहां ले के चश्मे तर बैठे
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