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<poem>
हैराँ हूँ इन उजड़े घरों को देखकर
ख़ाक़ उठती है घरों से
कुछ नहीं है बाक़ी उठाने को
यह वो शहर तो नहीं

जहाँ हर क़दम पर ज़िन्दगियाँ रोशन हुआ करती थीं
अब ऐसा बुलडोजर निज़ाम
और मातम-ही-मातम

चौतरफ़ा कम होती सांसों में भागते-थकते लोग
नमाज़ में झुके सर
और दुआओं में उठे खाली हाथ
माँग रहे है सांसें रमजान के मुक़द्दस माह में

अब यहां ईदी में बर्बाद जीवन के अलावा
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं.
</poem>
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