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आ गए सुस्ती के महीने, झपकी झपकियों के काहिल-शिथिल,यों लगता है, सचमुच यह.जीवन गुज़र चुका अनजान ।
काम-धाम सब ख़त्म करके वो घर में हुआ दाख़िल,
औ’ मेज़ किनारे आ दस्तारखान पर जा बैठा फिर देर से पहुँचा -दुरुस्त मेहमान ।
वो पीना चाहे है कुछ — पर उसे मदिरा नहीं भाती,
जहाँ हिम-तूफ़ान के पार मुश्किल से झलक रहा है, 
एक अकेली क़ब्र का ढूह औ’ उसकी मिट्टी की ढैया, 
जिसके ऊपर् ऊपर उजला-बिल्लौरी हिम चमक रहा है ।
वहाँ कभी सुनाई न देती भुर्जवृक्ष की फुसफुसाहट
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