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वहाँ तुमने निभृत अवकाश पर
किया संग्रह दुर्गम के रहस्यों को,
पहचान रहे थे तुम जल, स्थल और आकाश के दुर्बोध संकेतों को,
प्रकृति का दृष्टि-अतीत जादू
जगा रहा था मंत्र तुम्हारी चेतनातीत मन में ।
प्रदोष काल के झंझा बतास से है रुद्ध श्वास ,
जब बाहर निकल आए पशु गुप्त गुफ़ा से,
अशुभ ध्वनि के साथ करता है घोषणा दिन का अन्तिम काल,
आओ, युगान्तकारी कवियों,
आसन्न संध्या की शेष रश्मिपात में
खड़े हो जाओ उस सम्मान खो चुकी मानवी के द्वार पर,
कहो — "क्षमा कीजिए" —
हिंस्र प्रलाप के मध्य
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