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<poem>
फिर कुहुक
बनकर समाई
याद मधुबन की।
रोम में
जगने लगी है
गन्ध चन्दन की ।
थामकर
बैठे रहे
अरुणाभ किरणों की हथेली
लाज से
सकुचा गई थी
भोर की दुल्हन अकेली
तीर पर उतरी नहाने
रुपसी मन की ।
डबडबाती
आँख -सी है
रूप की यह झील निर्मल
पास में
सुधियाँ तुम्हारी
जैसे तुम हो लहर चंचल
ढूँढता हूँ
हर लहर में
छाप जीवन की ।
-0-
</poem>