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और हृदय की सारी कल्पनाशीलता के साथ
शायद ही सोच पाते !
 
'''13.'''
 
प्यार ऐसे नहीं किया जाता
जैसे ज्यामिति का कोई
प्रमेय सिद्ध किया जा रहा हो !
 
प्यार तो ऐसा होता है जैसे
इस समय, इस रात,
प्यार में मर जाओ
और जलकर राख हो जाओ
 
और कल फिर राख से जनम लेकर
दुनिया को और ख़ुद को बदलने के काम में
पूरी लगन और तल्लीनता के साथ
जुट जाओ !
 
'''14.'''
 
और यह लो !
मैं ख़ुश हुआ तुम्हारे लिए ।
देखो, मैं उदास हूँ
तुम्हारे लिए ।
 
और यह देखो, सचमुच
मैं जिया तुम्हारे लिए
और मरा तुम्हारे लिए ।
 
मैं तुम्हारी उत्कट कामना से
सराबोर हूँ प्रिये !
चलो, ऐसा करता हूँ,
इस समय मैं मर जाता हूँ तुम्हारे लिए ।
 
कल सुबह फिर से जनम लेकर
बहुत सारे काम निपटाने होंगे ।
लम्बित काम बहुत तनाव
पैदा करते हैं !
 
'''15.'''
 
कि जैसे अदृश्य में जीवन-दृश्य
कि जैसे समन्दर में आग
कि जैसे बेतुके समय की तुक
 
कि जैसे जागृति में स्वप्न
कि जैसे सामान्यता में सम्मोहन
कि जैसे मरुथल में हरीतिमा
कि जैसे अर्थहीनता का मर्म
कि जैसे निर्वात में साँस
 
यूँ मिलना होगा फिर
कि जैसे कभी जुदा ही न हुए हों
कि जैसे जुदा ही न होना हो कभी
कि जैसे बहुत कुछ
कि जैसे कुछ भी तो नहीं
 
'''16.'''
 
अगर मुझसे पूछो तो कहूँगा
प्यार है हमेशा एक शुरुआत की तरह
एकदम अमूर्त विचारों में साझेदारी की तरह
एक साथ होना बहुतों के बीच की तरह
 
हमेशा आकस्मिकता और अप्रत्याशित से भरा हुआ
सन्नाटे में चौंकाते हुए पास के झुरमुट से
अचानक उड़ जाने वाले पक्षी की तरह
एकदम भविष्य के जीवन की मौलिक परिकल्पना की तरह
ठोस और वास्तविक
 
और मन में पलते द्वन्द्व में
सही पहलू की जीत की तरह
एक जीवित ऊर्जस्वी हठ की तरह
 
'''17.'''
 
प्यार में जीवन के द्वन्द्व हैं सघन
जैसे कला मनुष्यता के द्वन्द्वों का प्रतिबिम्बन है ।
 
प्यार केवल मेल है
यह सोचना एक भ्रम है
मिथ्या चेतना का खेल है ।
 
प्यार भी विरुद्धों का टकराव और सामंजस्य है ।
प्यार का अविरल प्रवाह है
जीवन के अन्तरविरोधों का
मित्रतापूर्ण दायरे में हल होते रहना ।
 
अगर हल न किए जाएँ
निरन्तर सचेतन प्रयासों से
तो ये मित्रतापूर्ण दायरे का
अतिक्रमण कर जाते हैं
और शत्रुतापूर्ण दायरे में चले जाते हैं ।
 
इसीलिए ऐसा होता है कि
दो भूतपूर्व प्रेमी अरसे बाद
कहीं मिलते हैं और यह सोचकर
आश्चर्य से भर जाते हैं कि आखिर
भला कैसे वे कभी
एक-दूसरे के प्यार में जा पड़े थे
 
जबकि न तो गाँजा पीते थे
और न अफ़ीम चाटते थे ।
 
'''18.'''
 
हर बार की तरह इस बार भी
जब मिलेंगे
तो बहुत सारी गंभीर चर्चाएँ और लम्बी बहसें करने,
और कुछ योजनाएँ बनाने
और कुछ चिन्ताएँ शेयर करने
और कुछ लम्बित मतभेद सुलटाने के बाद,
हम कुछ देर, नहीं बल्कि घंटों तक,
एकदम बेवकूफ़ों जैसी
बेसिर-पैर की, बेतुकी बातें करेंगे,
 
बावलों की तरह बात-बेबात हँसेंगे,
कैरम और लूडो खेलेंगे,
राजकपूर की फ़िल्मों के गाने गाएँगे
और 'बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु'
और 'चित्रा जाम्बोरकर' जैसी
कई कविताएँ पढ़ेंगे,
 
और अपनी अहमक़ाना हरकतों से
एक दूसरे को हैरत में डाल देंगे
और फिर थोड़ी और सादगी,
थोड़ी और निश्छलता और तरलता,
थोड़ी और ताज़गी लेकर
बचपन और कैशोर्य की यात्रा से वापस
इतिहास के इस धूसर, निचाट, उदास
और कठिन कालखण्ड में
युद्ध की खन्दकों में
लौट आएँगे !
 
'''19. इरनी का ताल : एक दृश्य-चित्र'''
 
ताल तल पर सलवटें जल की ।
श्याम छाया बादलों की काँपती उसपर ।
ले रहीं यादें हिलोरें ।
 
खुली है पुस्तक समय की ।
फड़फड़ाते पंख
सपने उड़ रहे हैं ।
 
घाव कोई रिस रहा है
टीस कोई जग रही है ।
 
'''20. बरखा झिरझिर बरस रही है...'''
 
जीवन पथ की घातें
सचमुच बहुत कठिन हैं I
खोजी यात्राएँ करनी है
दुर्गम और अचिह्नित पथ पर !
काले कोस अभी चलने हैं!
अब उनका क्या करें शोक
जो साथ नहीं हैं आज I
 
सबके अपने जीवन के हैं
गीत अलग और
अलग-अलग हैं साज I
 
नए सफ़र पर जब चलना है
बस, इतना ही काफ़ी होगा,
संग-साथ हों अपने सपने,
कुतुबनुमा हो इंगित करता दिशा
और हाँ, स्मृतियाँ हों कुछ
स्पर्शों की, मुस्कानों की,
 
दिए हाथ में हाथ
साथ चलते जाने की,
सुबह-सबेरे धुन्ध-कुहासे के
परदों में छुप जाने की,
इस निचाट में
हरियल से कुछ मैदानों की,
कुछ बसंत के बादल की
कुछ मादक थापें मादल की I
 
गत जीवन के समाहार से
निकली है जो आसव
ही दे रही पुनर्नवा विश्वास I
 
अभी थका सा बैठा हूँमैं टौंस किनारे
दुर्वासा ऋषि के आश्रम में I
नीरवता का भेद खोलते
पक्षी कुछ-कुछ बोल रहे हैं I
मानसून के पहले वाली
बरखा झिरझिर बरस रही है I
 
कविता के गहरे खदान से
खनिज खोदकर जो लाया था,
नहीं मिल रहे I
कहीं खो गए शायद !
उनको फिर से गह लेने को,
दरस-परस सा कर लेने को
आत्मा जैसे तरस रही है !
जैसे बाहर, वैसे भीतर
बरखा झिरझिर बरस रही है !
 
'''21. बरखा झिरझिर बरस रही है...'''
 
कैसी बारिश तीन दिनों से
झम्मझमाझम बरस रही है
 
ताल-तलैया उमड़ पड़े हैं
मौक़ा देख जेल से भागे क़ैदी जैसे
भरे लबालब पोखर से यूँ
रोहू-कतला भाग चली हैं
बाहर विस्तृत जलप्रांतर में
 
सिधरी, चेल्हवा, सिंघी, मांगुर,टेंगन, गरई और बरारी
चमक-चमककर उछल रही हैं
छुपम-छुपाई खेल रही हैं
गड़हों में, धनखर खेतों में
और गाँव की गलियों में भी
भटक रही हैं
 
उधर मेड़ पर प्रणयमग्न धामन का जोड़ा
नृत्य कर रहा
दादुर सारे चीख रहे हैं
बूढ़े पीपल की शाखों से
बच्चे जल में कूद रहे हैं
 
रोपनी की मज़दूरी करने
सभी औरतें निकल गई हैं
इस बस्ती में
दु:खों के अविरल प्रवाह में
छोटा सा ही सही मगर
यह व्यतिक्रम अतिशय सुखदायी है
 
इधर-उधर मैं घूम रहा हूँ
बारिश तन को भिगो रही है
बारिश मन को भिगो रही है
कविता सी जीवन की आभा
कौंध रही है
यादों में मैं भीग रहा हूँ
सोच रहा हूँ
किन संकेतों के माध्यम से
जीवन की इस चहल-पहल को
किसी तरह तुम तक पहुँचा दूँ
**
 शशि प्रकाश (रचना काल : जनवरी 1981 से मार्च 1982 के दौरान)
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