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Kavita Kosh से
अब वह मिट्टी का ढेला है जमा हुआ ।
यहाँ गरमी के मौसम की तरह नाजुक नाज़ुक उछलती हो तुमचाकुओं के बीच उज्जवल उज्ज्वल लपटों की तरह
यहाँ आर-पार गुजरते तारों के बादल हैं
और मृतकों के हाथ से गिर पड़ी है ध्वजा ।