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{{KKRachna
|रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं तुमसे मिलकर अपनी कमीज़
भिगोना चाहता हूँ
बहुत दिनों से ताप में रहते हुए
यह कमीज़ प्यास से भरी हुई है
जब तक तुम नही मिलोगे यह कमीज़
देह की खूँटी पर टँगी रहेगी
मैं इसे उतारकर विवस्त्र नही होना
चाहता
लम्बा है इस कमीज़ का सफ़र
कपास के खेतों से लेकर दरज़ी की
सिलाई - मशीन तक फैली हुई है
इस कमीज़ की कथा
बटन - होल बनाते हुए कई बार काँपी
होगी बूढ़े दरज़ी की उँगलियाँ
कई बार ग़फ़लत में चुभ गई होगी
सुई
जैसे मैंने इस कमीज़ को पहना था
तो लगा था कि मैं उड़ जाऊँगा
यही वह क़मीज़ है जो तुम्हारे साथ
प्रेमरस में भीगना चाहती है ।
</poem>
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|रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
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मैं तुमसे मिलकर अपनी कमीज़
भिगोना चाहता हूँ
बहुत दिनों से ताप में रहते हुए
यह कमीज़ प्यास से भरी हुई है
जब तक तुम नही मिलोगे यह कमीज़
देह की खूँटी पर टँगी रहेगी
मैं इसे उतारकर विवस्त्र नही होना
चाहता
लम्बा है इस कमीज़ का सफ़र
कपास के खेतों से लेकर दरज़ी की
सिलाई - मशीन तक फैली हुई है
इस कमीज़ की कथा
बटन - होल बनाते हुए कई बार काँपी
होगी बूढ़े दरज़ी की उँगलियाँ
कई बार ग़फ़लत में चुभ गई होगी
सुई
जैसे मैंने इस कमीज़ को पहना था
तो लगा था कि मैं उड़ जाऊँगा
यही वह क़मीज़ है जो तुम्हारे साथ
प्रेमरस में भीगना चाहती है ।
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