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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
मेमनों के जो बड़े नाख़ून करना चाहते हैं
शांति की संभावना वे न्यून करना चाहते हैं

हैं हमारे ख़ून से हर रोज़ सींचे जा रहे जो
वो हमारी ख़्वाहिशों का ख़ून करना चाहते हैं

जनवरी की कँपकपाती ठंड की इस रात को वो
एक चुटकी धूप देकर जून करना चाहते हैं

जंगलों से आ गये हैं इस नगर में लोग कुछ और
जंगलों जैसा यहाँ क़ानून करना चाहते हैं

हम वो हैं जिनकी रगों में दौड़ता मुंगेर है और
वो हमें लहजे से देहरादून करना चाहते हैं

सागरों की मौज में हमने बिताई ज़िन्दगानी
कौन हैं जो अब हमें लैगून करना चाहते हैं

दुष्प्रचारों का है ऐसा दौर अपने सामने अब
लोग पूरे पेड़ को दातून करना चाहते हैं
</poem>
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