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पार्क / राजेश अरोड़ा

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<poem>
सोचता हूँ
ऐसा एक पार्क बनाऊँ
जिसमें हो
हरी दूब
फूलों की क्यारी
और एक छोटा तालाब
तैरती हों मछलियाँ जिसमें

खेलते हों बच्चे
झूले पर चढ़े ऐसे
जैसे जीत ली हो
दुनिया कोई

एक कोने में हो
कदम का पेड़
जिसके नीचे बैठ
बातें करें
बबली और सोनी

बारह मास
खिलते हो फूल
हँसते हो बच्चे
हाथ में हाथ लिये
चलते हो प्रेमी

सोचता हूँ
एक पार्क बनाऊँ
जिसके दरवाज़े
खुले रहे सबके लिये।
</poem>
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