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रहता है मशग़ला जहाँ बस वाह-वाह का
मैं भी हूँ इस इक फ़कीर उसी ख़ानक़ाह का
सद शुक्र हुस्न और शबे-बेपनाह का
ये सिलसिला बढ़े तो तिरी रस्मो-राह का
मजबूरो-नातवाँ1 नातवाँ कोई इंसाँ नज़र न आयेगुज़रेगा यां से क़ाफिला आलमपनाह का</poem>{{KKMeaning}}