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|संग्रह=लम्हों की फुलकारी / मधु 'मधुमन'
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<poem>
तसव्वुर में ही बातें कर रहे हैं
कहानी में रवानी भर रहे हैं

बहुत कुछ चल रहा है दिल में हर पल
मगर कहने से कुछ भी डर रहे हैं

डगर की धूल बन कर रह गए वो
कभी जो मील का पत्थर रहे हैं

हमारी अहमियत को कम न समझो
हैं क़तरा पर समुंदर भर रहे हैं

हमें भाता नहीं है टिक के रहना
कि हम फ़ितरत से यायावर रहे हैं

भुला बैठे हैं क्यूँ आए हैं जग में
हमें करना था क्या ,क्या कर रहे हैं

नज़र आते हैं ज़िंदा यूँ तो ‘मधुमन’
मगर भीतर ही भीतर मर रहे हैं
</poem>
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