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::उपरांत यज्ञ के ब्राह्मणों को, दक्षिण के रूप में,<br>::गौएँ जो दी जानी थी, सब थी जीर्ण शीर्ण स्वरूप में।<br>::नचिकेता बालक था अपितु, आवेश में कुछ कुछ कहा,<br>::क्या दान योग्य है जीर्ण गौएँ, शेष इनमें क्या रहा॥ [ २ ]<br><br>
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::इन अर्थों में, अति परम प्रिय धन, तात का मैं पुत्र हूँ,<br>::मुझे आप किसको दे रहे कृपया कहें, मैं व्यग्र हूँ।<br>::पुनि प्रश्न था, पुनि मौन था, पुनि प्रश्न उत्तर शेष था,<br>::तुझे मृत्यु को देता हूँ, ऋषि को, क्रोधमय आवेश था॥ [ ४ ]<br><br>
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::हे तात ! आपके पूर्वजों ने आचरण, जो भी किया,<br>::वर्तमान को श्रेष्ठ लोगों ने अभी जैसे जिया।<br>::करिये यथावत आचरण, ऋत, मरण धर्मा प्राण हैं,<br>::अन्न सम प्राणों की वृति इव, जन्म जीर्ण विधान है॥ [ ६ ]<br><br>
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::भोजन बिना ब्राह्मण अतिथि, घर में रहे जिसके कभी,<br>::शुभ दान, यज्ञ व पुण्य कर्मों के फलित फल क्षय हों सभी।<br>::पूर्व पुण्य से प्राप्त सुत -पशु, वाणी का माधुर्य भी,<br>::श्री हीन क्षीण हो अतिथि जिसके, घर रहे भूखा कभी॥ [ ८ ]<br><br>
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::वापस यहाँ से जाऊं मैं तो, पूर्ववत मेरे पिता,<br>::क्रोध क्षोभ से रहित शांत हों, मुदित मन आनंदिता।<br>::स्नेहाविकल होकर कहें, मम पुत्र नचिकेता यही,<br>::तीनों वरों में मृत्यु देव हे ! प्रथम वर इच्छित यही॥ [ १० ]<br><br>
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::भय नहीं किंचित स्वर्ग लोके, जरावस्था भी नहीं,<br>::भूख प्यास विकार तन के, व्याधि दुःख होते नहीं।<br>::वहाँ मृत्यु रूप में आप भी करते नहीं भयभीत हैं ,<br>::आनंद रस में निमग्न हो, वहाँ जीव सारे पुनीत हैं॥ [ १२ ]<br><br>
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::नचिकेता प्रिय मैं अग्नि विद्या से, विधिवत विज्ञ हूँ,<br>::ऋत मर्म कहता हूँ सुनो, वर देने को मैं प्रतिज्ञ हूँ।<br>::है अग्नि विद्या अनंत इससे, लोक अविनाशी मिले,<br>::बुद्धि रुपी गुफा में यह तात्विकों को ही मिले॥ [ १४ ]<br><br>
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