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चुप-चाप / तुलसी रमण

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आज तुम
खूब आईं....

कितना अच्छा लगता है
एक बहाने के पहिए पर बिना काम
किसी का आना
किना काम
किसी पहिए का पास जाना....

इसके सेवा ज़िंदगी की
कमाई भी क्या है
पल-पल घुलते रहना
एक दूसरे में
चुपचाप
चुपचाप
</poem>
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