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पिता आते हैं फ़ुर्सत में
कि ऐन वक़्त चली जाती है माँ
धीरे-धीरे जान पाते हैं पिता
कि फुर्सत में आना
यही होता है संसार
और ख़ुश्क आँखों से रोते हैं पिता
 
'''तीन'''
पेड़ों पर पड़ती थी
संसार की धूप
पिता जहाँ बैठते हैं'''वहाँ से हटकर पड़ती है'''''''''मोटा पाठ''''''
पेड़ों की छाँव
पिता के हिस्से में नहीं आते
अब जबकि पक चुके हैं बाल
पक चुका है मोतिया
अब जबकि क़दम को दो क़दम पर
फूलती है साँस
पिता दूर-दराज़ के मजबूर बंजारे हैं
दूर -दराज़ बसे हैं
बच्चों के संसार
जिसे लगे हल्का पिता का भार
'''पाँच'''
पिता पैंशन भर नहीं है
पिता चुप लगा जाते हैं
पिता नहीं कहते
पिथ्याचार मिथ्याचार मिथ्याचार
</poem>
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