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{{KKRachna
|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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}}
क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गयी

बदनाम करने आई थी बदनाम कर गयी।


क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश

कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गयी।


रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र

मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गयी।


नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़

अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गयी।