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कोहरा,शहर और हम / केशव

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पद्चाप से
चौंककर
लिपटता ह्उआहुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
सफेद सफ़ेद खरगोश की तरह
रह गये गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में मुँदा मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
ऊँघता ऊंघता हुआ
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
न मैं
न तुम
रह गये गए हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
सोये सोए न जागते</poem>
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