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|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
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सुख आनि, सहज जो आपु मिले ,
मत्सर, सुख, दुःखन ताप परे.
रहे सिद्धि-असिद्धिन में समता,
बिनु बंधन, कर्म तथापि करे

बिनु मोह के कर्म करै ज्ञानी,
सब करमन यज्ञ कौ भाव धरै,
तस मुक्त जनान के कर्म-अकर्म,
न कर्तापन को भाव करै

हवि-अग्नि , हुतं अर्पित सबहिं,
सब ब्रह्म के रूपहीं ब्रह्म ही है,
अथ ब्रह्म के करमन लीन जना,
कौ, लक्ष्य सबहिं कछु ब्रह्म ही है

देवन के पूजन रूप यज्ञ,
कुछ योगी ताहि उपासत हैं,
परब्रह्म रूप अग्नि में कोऊ,
तौ यज्ञ सों यज्ञ उपासत हैं

सब इन्द्रिन कौ संयम रूपी,
अग्नि में यज्ञ करै योगी,
कुछ इन्द्रिय रूपी अनल हवन,
शब्दादि विषय को करै योगी

कुछ योगी प्राणं इन्द्रिन कौ,
व्यापार, ज्ञान सों दीप्त करैं.
अथ ब्रह्महिं योग रूप अग्नि
सों ज्योति हवन की प्रदीप्त करैं

तप योग अहिंसा व्रत अध्ययन ,
स्वाध्याय ज्ञान के यज्ञन सों.
धन दान सों यज्ञ करत कोऊ
कोऊ यज्ञ करत प्रभु चिंतन सों

कुछ वायु अपान में प्राण वायु,
कुछ प्राण अपान हवन करते.
कुछ प्राण अपान की रोक गति,
प्राणायाम परायण हो रहते

कुछ योगी नित्य आहार करें,
प्राणों का प्राण में यज्ञ करें.
जिन यज्ञ सों पाप विनाश भये,
तिन होत यज्ञ सों विज्ञ नरे

जिन यज्ञन अमृत भोग लियो ,
तिन ब्रह्म परम मिलिहैं -मिलिहैं.
बिनु यज्ञ यहॉं सुख नेकु नहीं,
पर लोकहीं केहि विधि सुख पइहैं

अस बहु विधि , यज्ञ तौ वेदन की,
वाणी माहीं विस्तार भये,
तिन तत्व सों जानि के पार्थ प्रिये !
भाव बंधन काट के पार भये

इह लौकिक यज्ञ सों ज्ञान यज्ञ,
तौ होत परन्तप! उच्च महे.
हे पार्थ ! करम सगरे जग के,
तौ ज्ञान में शेष ही होत अहे

नत भाव प्रणाम, विनत मन सों,
करी प्रश्न कौ, ज्ञान कौ, जाननि कौ.,
उपदेश तोहे करिहैं -करिहैं,
तत्वज्ञ तौ तत्व के ज्ञानिन कौ

जेहि जानि के मोह तो शेष भयौ ,
और ब्रह्म कौ ज्ञान विशेष भयौ.
आपुनि जैसो प्रति प्राणी लगे,
जस प्रानी में ब्रह्म प्रवेश भयो

सब पापिन सों तू पापी अधम,
तोऊ ज्ञान की नाव सों निश्चय ही,
मिटहै सब पाप धनञ्जय हे!
तरि जइहो तुम बिनु संशय ही

धधकात अगनि जस हे अर्जुन!
करी देत भसम सब ईंधन कौ.
तस ज्ञान सरूप अगनि भारत,
भस्मी वत करवत करमन कौ

कब होत कोऊ पावन कर्ता,
जग मांहीं ज्ञान समान कोऊ.
कियौ योग सिद्ध जिन अंतस में ,
आभास करत जानत सोऊ

जिन इन्द्रिन जीत लियो जन वे,
तौ ज्ञान कौ निश्चय ही पइहैं.
यहि ज्ञान सों ब्रह्म को नेह मिले ,
अथ शांति परम पइहैं-पइहैं

दुविधा, बिनु ज्ञान है जाके जिए,
श्रद्धा सों हीन हैं जाके हिये.
तिन लोक न ही परलोक मिले,
परमारथ नाहीं ताके लिए

जिन बुद्धि समत्त्वन योगन सों,
भगवत अर्पित सब कर्म किये,
जिन ज्ञान सों शेष भये संशय,
तिन कर्म किये पर नाहीं किये

अथ योगस्थित हुइ जा अर्जुन!
दृढ़ चित्त मना हो प्रबुद्ध करौ,
हिय कौ संशय निज ज्ञान कटार सों,
काटी, उठौ अब जुद्ध करौ
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