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बनी हुई सरला है?<br><br>
::सुख-समृद्धि क विपुल कोष<br>::संचित कर कल, बल, छल से,<br>::किसी क्षुधित क ग्रास छीन,<br>::धन लूट किसी निर्बल से।<br><br>
सब समेट, प्रहरी बिठला कर<br>
गरल क्रान्ति का घोलो।<br><br>
::हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त<br>::अपना मुझको पीने दो,<br>::अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,<br>::जियो और जीने दो।<br><br>
सच है, सत्ता सिमट-सिमट<br>
क्यों चाहें कभी लड़ाई?<br><br>
::सुख का सम्यक्-रूप विभाजन<br>::जहाँ नीति से, नय से<br>::संभव नहीं; अशान्ति दबी हो<br>::जहाँ खड्ग के भय से,<br><br>
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति<br>
अन्यायी, अविचारी;<br><br>
::नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के<br>::जहाँ न आदर पायें;<br>::जहाँ सत्य कहनेवालों के<br>::सीस उतारे जायें;<br><br>
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र<br>
हृदय जहाँ जन-जन का;<br><br>
::सहते-सहते अनय जहाँ<br>::मर रहा मनुज का मन हो;<br>::समझ कापुरुष अपने को<br>::धिक्कार रहा जन-जन हो;<br><br>
अहंकार के साथ घृणा का<br>
हो छिटक रही चिनगारी;<br><br>
::आगामी विस्फोट काल के<br>::मुख पर दमक रहा हो;<br>::इंगित में अंगार विवश<br>::भावों के चमक रहा हो;<br><br>
पढ कर भी संकेत सजग हों<br>
आहुतियाँ बारी-बारी;<br><br>
::कभी नये शोषण से, कभी<br>::उपेक्षा, कभी दमन से,<br>::अपमानों से कभी, कभी<br>::शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।<br><br>
दबे हुए आवेग वहाँ यदि<br>
अन्यायी पर टूटें;<br><br>
::कहो, कौन दायी होगा<br>::उस दारुण जगद्दहन का<br>::अहंकार य घृणा? कौन<br>::दोषी होगा उस रण का? <br><br>