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{{KKRachna
|रचनाकार=इसाक अश्क
}} {{KKCatKavita}}{{KKCatKavita}}<poem>पद-रज हुई<br>गुलाल<br>लगा फिर ऋतु फगुनाई है।<br><br>
मादल की<br>थापें हों या हों-<br>वंशी की तानें<br>ऐसे में<br>क्या होगा यह तो<br>ईश्वर ही जानें<br>खिले आग के<br>फूल फूँकती<br>स्वर-शहनाई है।<br><br>
गंध-पवन के<br>बेलगाम<br>शक्तिशाली झोंके<br>कौन भला<br>इनको जो बढकर<br>हाथों से रोके<br>रक्तिम<br>हुए कपोल<br>
दिशा कुछ-यों शरमाई है।
</poem>